रदीफ रदीफ़ अरबी शब्द है
इसकी उत्पत्ति “रद्” धातु से मानी गयी है| रदीफ का शाब्दिक अर्थ है '“पीछे
चलाने वाला'” या '“पीछे बैठा हुआ'” या 'दूल्हे के साथ घोड़े पर पीछे बैठा
छोटा लड़का' (बल्हा)| ग़ज़ल के सन्दर्भ में रदीफ़ उस शब्द या शब्द समूह को
कहते हैं जो मतला (पहला शेर) के मिसरा ए उला (पहली पंक्ति) और मिसरा ए सानी
(दूसरी पंक्ति) दोनों के अंत में आता है और हू-ब-हू एक ही होता है यह अन्य
शेर के मिसरा-ए-सानी (द्वितीय पंक्ति) के सबसे अंत में हू-ब-हू आता है|
उदाहरण –
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए – (दुष्यंत कुमार)
इस मतले में दोनों पंक्ति के अंत में “चाहिए” शब्द हू-ब-हू आया है और इसके पहले क्रमशः “पिघलनी” और “निकलनी” शब्द आया है जो समतुकांत तो है परन्तु शब्द अलग अलग हैं इसलिए यह रदीफ का हर्फ़ नहीं हो सकता है अतः मतले में हर्फे रदीफ तय हुआ – “चाहिए”,
अब यदि ग़ज़ल में और मतला नहीं है अर्थात हुस्ने मतला नहीं है तो आगे के
शेर में “चाहिए” रदीफ हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आएगा | आगे के शेर
देखें -
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
ग़ज़ल
के मतले में जो शब्द अथवा शब्द समूह हर्फ़ -ए- रदीफ निर्धारित हो जाता है
अरूज़ानुसार वह ग़ज़ल में आगे के हर शेर में हू-ब-हू रहता है| एक मात्रा या
अनुस्वार की घट बढ़ भी संभव नहीं है यदि कोई बदलाव किया जाता है तो शेर
दोषपूर्ण हो जाता है
कुछ और शेर में रदीफ देखें -
फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है
किधर को भाग रही है इसे खबर ही नहीं
हमारी नस्ल बला की जहीन कुछ तो है
लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है
हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है
(पद्मश्री बेकल उत्साही)
प्रस्तुत अशआर में "कुछ तो है" हर्फ़-ए-रदीफ है
बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उअलाझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता
( निदा फ़ाजली )
प्रस्तुत अशआर में क्यों नहीं जाता हर्फ़-ए-रदीफ है
कठिन है राह गुजर थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कडा है सफर थोड़ी दूर साथ चलो
नशे में चूर हूँ मैं भी, तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मजा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो
यह एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे हैं कल कि खार थोड़ी दूर साथ चलो (अहमद फराज़)
प्रस्तुत अशआर में थोड़ी दूर साथ चलो हर्फ़-ए-रदीफ है
आकार के आधार पर रदीफ का तीन भेद किया जा सकता है
१- छोटी रदीफ – ऐसी रदीफ जो मात्र एक अक्षर या एक शब्द की हो छोटी रदीफ कहलाती है
उदाहरण –
सिलसिला जख्म जख्म जारी है
ये जमीन दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
(अख्तर नज्मी)
प्रस्तुत अशआर में है हर्फ़-ए-रदीफ है जो कि केवल एक अक्षर की है| यह छोटी रदीफ है
२- मझली रदीफ - ऐसी रदीफ जो दो-तीन शब्द की हो तथा मिसरे की लम्बाई के अनुपात में आधे मिसरे से छोटी हो उसे मझली रदीफ कहा जायेगा|
उदाहरण –
तेरी जन्नत से हिजरत कर रहे हैं
फ़रिश्ते क्या बगावत कर रहे हैं
हम अपने जुर्म का इकरार कर लें
बहुत दिन से ये हिम्मत कर रहे हैं
(पद्मश्री बशीर बद्र)
प्रस्तुत अशआर में कर रहे हैं हर्फ़-ए-रदीफ है जो कि तीन शब्द की है| मिसरे की लम्बाई अनुसार यह मझली रदीफ है
३ - लंबी रदीफ –
जिस ग़ज़ल के मिसरे में एक दो शब्द के अतिरिक्त पूरे शब्द रदीफ के हो अथवा
मिसरे की लम्बाई अनुसार मिसरे में आधे से अधिक शब्द रदीफ का अंश हो, उसे
लंबी रदीफ कहा जायेगा
उदाहरण –
बिखर जाने की जिद में तुम थे हम भी
कि टकराने की जिद में तुम थे हम भी
अगर तुम हुस्न थे तो हम ग़ज़ल थे
सितम ढाने की जिद में तुम थे हम भी
(वीनस केसरी)
ये तिश्नगी का सफर खत्म क्यों नहीं होता
मेरी नदी का सफर खत्म क्यों नहीं होता
हुनर भी है, मेरे मालिक कि मुझ पे रहमत भी
तो मुफ़्लिसी का सफर खत्म क्यों नहीं होता
(वीनस केसरी)
मुरद्दफ़ ग़ज़ल = जिस ग़ज़ल में रदीफ होती है उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं, इस लेख में ऊपर की सभी ग़ज़लें इसका उदाहरण हैं
गैर मुरद्दफ़ = अरूजानुसार ऐसी ग़ज़ल भी कही जा सकती है जिसमें रदीफ न हो | ऐसी ग़ज़ल को गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते है
उदाहरण –
इस राज को क्या जानें साहिल के तमाशाई हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहराई
ये जब्र भी देखा है तारीख की नज़रों ने
लम्हों ने खता के थी सदियों ने सज़ा पाई
क्या सनेहा याद आया 'रज्मी' की तबाही का
क्यों आपकी नाज़ुक सी आखों में नमी आई (मुज़फ्फ़र रज्मी)
अशआर के अंत में क्रमशः तमाशाई, गहराई, पाई, आई
शब्द आ रहा है जो समतुकांत है परन्तु हू-ब-हू वही नहीं है इसलिए यह रदीफ
के हर्फ़ नहीं हो सकते हैं अतः ग़ज़ल में रदीफ नहीं है और इस ग़ज़ल को गैर
मुरद्दफ़ कहेंगे
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